ओशो साहित्य >> कुंडलिनी और समाधि कुंडलिनी और समाधिस्वामी ज्ञानभेद
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प्रस्तुत है एक ज्ञानपयोगी पुस्तक...
Kundalini Aur Samadhi
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
तमाम मैदान मिलकर बना है एक सफेद चादर बिस्तर का जिसका न कहीं छोर जो फैला है चारों ओर-ठीक मेरी देह सा आकाश भी लगभग तुम जैसा है कभी-कभी लगता है-मैं आकाश हूं पसरा हुआ पर खाली और देखता हूं ठीक पृथ्वी की तरह तुमने पसार रखे हैं, अपने हाथ जहां भी उतरूं, वहीं है तुम्हारा आलिंगन। होता है भ्रम ज़मीन और आसमान के मिलने का कहीं दूर काश ! तुम्हीं उड़ आओ प्रवास से ओर मेरे विहंग मैं यहां से हटूगां नहीं कि कहीं चांद डूब न जाए कि कहीं मेरे लौटते समय रास्ता न दिखे सूरज के प्रकाश में
उड़िया कवि-श्री रमाकान्त रथ
भूमिका
पेशे से डॉक्टर होते हुए भी मैं सत्य का खोजी हूं। उसी की तलाश में भटकते हुए ओशो से जुड़ा। ओशो का संन्यासी बनकर ही उनकी प्रामाणिक जीवनी एक फक्कड़ मसीहा ओशो के विभिन्न खण्ड़ों को पढ़ते हुए एक दिन अनायास स्वामी ज्ञानभेद से मुलाकात हो गई। वह मुझे अपने ग्रंथों से भी अधिक प्रीतिकर लगे। उनसे हुई चार-पांच छोटी-छोटी मुलाकातों में ही उनका ओशोमय जीवन, ओशोमय सोत और ओशोमय भावों से आपूरित संवेदना का अनुभव कर मैं परम तृप्ति और आनन्द में डूब गया।
तभी अचानक एक दिन स्वामी जी ने मुझसे अपने नए ग्रंथ ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ की भूमिका लिखने का आग्रह किया। मैंने प्रतिरोध करते हुए कहा भी-‘‘मैं अपने में इसको लिखने की पात्रता हरगिज नहीं पाता। फिर आपको भूमिका लिखवाने की आवश्यकता क्या है ? पूरा ओशो संसार आपसे भली-भांति परिचित है।’’ स्वामीजी एक रहस्मय मुस्कान बिखेरते हुए बोले-‘‘पूना कम्यून के निकट एक गंदे नाले को वनस्पति शास्त्रियों ने नहीं, साधारण संन्यासियों ने ही नंदन कानन में परवर्तित कर दिया। कोई भी अपने अंदर छिपी रहस्यमय शक्तियों से भली-भाँति परिचित नहीं होता। फिर आपने तो ध्यान में गहरे उतर कर उस अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त किया है। आप झिझकें नहीं। भूमिका आपको लिखनी ही है। यह मेरा नहीं, अस्तित्व का आदेश है। ओशो ने भी अन्य लोगों से अपने ग्रंथों की भूमिकाएं कुछ विशेष प्रयोजन से ही लिखवाईं।
मेरे अन्दर जो भी अघट घटा था, स्वामीजी की पारखी दृष्टि से वह कैसे बच सकता था। आदेश शिरोधार्य कर मैंने रात देर तक जाग-जाग कर धीमे-धीमे ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ की पाण्डुलिपि ध्यान और प्रेम में डूबते हुए पढ़ी। मुझे शिद्दत से महसूस हुआ कि स्वामी जी ने जो जाना और अनुभव किया है उसकी भावपूर्ण अभिव्यक्ति बेजोड़ और अनुपम हैं।
इस ग्रंथ के द्वारा वे भारतीयों साधकों के लिए पूना थेरेपी उपचारक के द्वारा ओशो के प्रवचनों में बिखरे सूत्रों द्वारा खोलते हुए उस महत्त्वपूर्ण कार्य का शुभारम्भ कर रहे हैं जिसे ओशो ने सहजयोग प्रवचनमाला में व्यक्त किया था। इन सूत्रों के द्वारा साधक स्वयं अपना निरीक्षण करते हुए अपनी शारीरिक और मानसिक आवश्यकताओं के अनुसार अपनी अंर्तमुखी, बर्हिमुखी प्रवृत्ति, रजस, तमस या सत गुणों की उपस्थिति का अनुभव कर अपने लिए सही मार्ग और उपयुक्त ध्यान विधियां चुनकर अपने दीये आप बन सकते हैं।
स्वामीजी ने प्राइमल थेरेपी, सम्मोहन, बैलेंसिग, मालिश तथा विज्ञान भैरव तंत्र के जिन रहस्यमय आणविक प्रयोगों का उल्लेख किया है, मुझे कुछ मित्रों सहित उनके कुछ निर्देशन में उन प्रयोगों को करने का सौभाग्य भी मिला है। जो साधक वर्षों से ध्यान करते हुए कुछ भी न घटने के कारण हताशा का अनुभव कर रहे हैं, उनके लिए और समर्पित वेदनशील नये साधकों के लिए सभी पांच-पांच मिनट के यह प्रयोग अद्भुत रूपान्तरणकारी है।
कुण्डलिनी जागरण के लिए स्वामीजी द्वारा बताए प्रयोग, अत्यंत सरल और सुगम हैं जिनमें से दो चार का उल्लेख तो ओशो ने भी अपने प्रवचनों में भी नहीं किया है और संभवतः ‘तंत्र के रहस्यमय संसार’ के अंतर्गत थेरेपी ग्रुप्स में उनका रहस्य थोड़े से चुने लोगों को ही बतलाया हो। हिन्दी वर्णमाला के स्वरों का दस चक्रों पर प्रयोग करने से पन्द्रह मिनट में ही ऊर्जा के ऊर्ध्वागमन का सहज अनुभव कर मैं स्वयं विस्मय विमूढ़ हो गया।
हमारा अहंकार यह भरोसा कर ही नहीं पाता कि पांच दस मिनट के प्रयोग हमको स्वयं के होने का या सत्य का साक्षात्कार करवा सकते हैं। विज्ञान-भैरव-तंत्र और आरेंज बुक के ध्यान प्रयोग अद्भुत रूपान्तरणकारी हैं। आज की व्यस्तता और भागदौड़ में एक-एक घंटे के दो-तीन प्रयोग नियमित रूप से नित्य करना साधारण लोगों के लिए कठिन है पर प्रेमपूर्ण, सजग और संवेदनशील होकर पांच-दस मिनटों के तीन-चार प्रयोगों को नियमित रूप से करना आसान है।
जिसकी सारी चेतना बाहर से सिमट कर अन्दर केन्द्रित हो जाती है, जिसे अपने होने की अनुभूति हो जाती है, जो पिघल कर शरीर और मन के पार अपनी और विश्व चेतना के अद्वैस्वरूप की अनुभूति करता है, तब उसे अनुभव होता है कि बात कितनी सरल और सहज थी। पर उस सरल सहज अनुभूति को अभिव्यक्ति करते हुए जो बहुत दुरूह है, अस्तित्व के संकेत से जो दूसरों के रूपान्तरण के लिए करुणाकार उसे अभिव्यक्त करता मुझे विश्वास है कि यह ग्रंथ रत्न साधकों को मार्गदर्शन देते हुए उन्हें ‘अप्पदीपो भव’ बनने में सहयोगी और एक मील का पत्थर सिद्ध होगा। ध्यान और प्रेम के संबंध में ओशो की सभी हिन्दी अंग्रेजी प्रवचनमालाओं का यह सारसूत्र और अमृत होने के साथ-साथ यह स्वामीजी के भी अनुभवों का निचोड़ है।
मैं अस्तित्व के प्रति कृतज्ञ हूं कि मुझे स्वामीजी के इस सारगर्मित ग्रन्थ और उन्हें जो मिला है उसे औरों को बांटने की भावपूर्ण विकलता को प्रेमी मित्रों से परिचित कराने का सौभाग्य मिला। मैं सद्गुरु ओशो के चरणों में श्रद्धापूर्ण नमन करते हुए, पूरे अस्तित्व के प्रति अहोभाव व्यक्त करता हूं।
तभी अचानक एक दिन स्वामी जी ने मुझसे अपने नए ग्रंथ ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ की भूमिका लिखने का आग्रह किया। मैंने प्रतिरोध करते हुए कहा भी-‘‘मैं अपने में इसको लिखने की पात्रता हरगिज नहीं पाता। फिर आपको भूमिका लिखवाने की आवश्यकता क्या है ? पूरा ओशो संसार आपसे भली-भांति परिचित है।’’ स्वामीजी एक रहस्मय मुस्कान बिखेरते हुए बोले-‘‘पूना कम्यून के निकट एक गंदे नाले को वनस्पति शास्त्रियों ने नहीं, साधारण संन्यासियों ने ही नंदन कानन में परवर्तित कर दिया। कोई भी अपने अंदर छिपी रहस्यमय शक्तियों से भली-भाँति परिचित नहीं होता। फिर आपने तो ध्यान में गहरे उतर कर उस अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त किया है। आप झिझकें नहीं। भूमिका आपको लिखनी ही है। यह मेरा नहीं, अस्तित्व का आदेश है। ओशो ने भी अन्य लोगों से अपने ग्रंथों की भूमिकाएं कुछ विशेष प्रयोजन से ही लिखवाईं।
मेरे अन्दर जो भी अघट घटा था, स्वामीजी की पारखी दृष्टि से वह कैसे बच सकता था। आदेश शिरोधार्य कर मैंने रात देर तक जाग-जाग कर धीमे-धीमे ‘ध्यान प्रेम की छांव में’ की पाण्डुलिपि ध्यान और प्रेम में डूबते हुए पढ़ी। मुझे शिद्दत से महसूस हुआ कि स्वामी जी ने जो जाना और अनुभव किया है उसकी भावपूर्ण अभिव्यक्ति बेजोड़ और अनुपम हैं।
इस ग्रंथ के द्वारा वे भारतीयों साधकों के लिए पूना थेरेपी उपचारक के द्वारा ओशो के प्रवचनों में बिखरे सूत्रों द्वारा खोलते हुए उस महत्त्वपूर्ण कार्य का शुभारम्भ कर रहे हैं जिसे ओशो ने सहजयोग प्रवचनमाला में व्यक्त किया था। इन सूत्रों के द्वारा साधक स्वयं अपना निरीक्षण करते हुए अपनी शारीरिक और मानसिक आवश्यकताओं के अनुसार अपनी अंर्तमुखी, बर्हिमुखी प्रवृत्ति, रजस, तमस या सत गुणों की उपस्थिति का अनुभव कर अपने लिए सही मार्ग और उपयुक्त ध्यान विधियां चुनकर अपने दीये आप बन सकते हैं।
स्वामीजी ने प्राइमल थेरेपी, सम्मोहन, बैलेंसिग, मालिश तथा विज्ञान भैरव तंत्र के जिन रहस्यमय आणविक प्रयोगों का उल्लेख किया है, मुझे कुछ मित्रों सहित उनके कुछ निर्देशन में उन प्रयोगों को करने का सौभाग्य भी मिला है। जो साधक वर्षों से ध्यान करते हुए कुछ भी न घटने के कारण हताशा का अनुभव कर रहे हैं, उनके लिए और समर्पित वेदनशील नये साधकों के लिए सभी पांच-पांच मिनट के यह प्रयोग अद्भुत रूपान्तरणकारी है।
कुण्डलिनी जागरण के लिए स्वामीजी द्वारा बताए प्रयोग, अत्यंत सरल और सुगम हैं जिनमें से दो चार का उल्लेख तो ओशो ने भी अपने प्रवचनों में भी नहीं किया है और संभवतः ‘तंत्र के रहस्यमय संसार’ के अंतर्गत थेरेपी ग्रुप्स में उनका रहस्य थोड़े से चुने लोगों को ही बतलाया हो। हिन्दी वर्णमाला के स्वरों का दस चक्रों पर प्रयोग करने से पन्द्रह मिनट में ही ऊर्जा के ऊर्ध्वागमन का सहज अनुभव कर मैं स्वयं विस्मय विमूढ़ हो गया।
हमारा अहंकार यह भरोसा कर ही नहीं पाता कि पांच दस मिनट के प्रयोग हमको स्वयं के होने का या सत्य का साक्षात्कार करवा सकते हैं। विज्ञान-भैरव-तंत्र और आरेंज बुक के ध्यान प्रयोग अद्भुत रूपान्तरणकारी हैं। आज की व्यस्तता और भागदौड़ में एक-एक घंटे के दो-तीन प्रयोग नियमित रूप से नित्य करना साधारण लोगों के लिए कठिन है पर प्रेमपूर्ण, सजग और संवेदनशील होकर पांच-दस मिनटों के तीन-चार प्रयोगों को नियमित रूप से करना आसान है।
जिसकी सारी चेतना बाहर से सिमट कर अन्दर केन्द्रित हो जाती है, जिसे अपने होने की अनुभूति हो जाती है, जो पिघल कर शरीर और मन के पार अपनी और विश्व चेतना के अद्वैस्वरूप की अनुभूति करता है, तब उसे अनुभव होता है कि बात कितनी सरल और सहज थी। पर उस सरल सहज अनुभूति को अभिव्यक्ति करते हुए जो बहुत दुरूह है, अस्तित्व के संकेत से जो दूसरों के रूपान्तरण के लिए करुणाकार उसे अभिव्यक्त करता मुझे विश्वास है कि यह ग्रंथ रत्न साधकों को मार्गदर्शन देते हुए उन्हें ‘अप्पदीपो भव’ बनने में सहयोगी और एक मील का पत्थर सिद्ध होगा। ध्यान और प्रेम के संबंध में ओशो की सभी हिन्दी अंग्रेजी प्रवचनमालाओं का यह सारसूत्र और अमृत होने के साथ-साथ यह स्वामीजी के भी अनुभवों का निचोड़ है।
मैं अस्तित्व के प्रति कृतज्ञ हूं कि मुझे स्वामीजी के इस सारगर्मित ग्रन्थ और उन्हें जो मिला है उसे औरों को बांटने की भावपूर्ण विकलता को प्रेमी मित्रों से परिचित कराने का सौभाग्य मिला। मैं सद्गुरु ओशो के चरणों में श्रद्धापूर्ण नमन करते हुए, पूरे अस्तित्व के प्रति अहोभाव व्यक्त करता हूं।
महापरिनिर्वाण दिवस 2003
स्वामी अन्तर निर्मन्तु
(डॉ. पी.के.गुप्ता)
133/9 पी.1 ट्रांसपोर्ट नगर,
कानपुर
(डॉ. पी.के.गुप्ता)
133/9 पी.1 ट्रांसपोर्ट नगर,
कानपुर
कुंडलिनी और समाधि : एक परिचय
स्वामी प्रेम निशीथ की कलम से
स्वामी ज्ञानभेद द्वारा रचित इस नवीनतम कृति ‘कुंडलिनी और समाधि’ पढ़ते हुए कई बार यह भाव आया कि यह पुस्तक किनके लिये लिखी गयी है, क्योंकि पुस्तक को दरकार है एक स्तरीय बौद्धिक क्षमता की, लेकिन साथ ही ऐसे पाठकों की जो बुद्धि की क्षमताओं का उपयोग करते हुए, हृदय की गहराइयों में विषयवस्तु को उतार सकते हों। तंत्र एक रहस्यमय विज्ञान है, लेकिन विज्ञान होते हुए भी वो तर्क का विषय नहीं है। इसकी रहस्यमय गहराइयों में प्रवेश करने के लिए संवेदनाशीलता, सजगता, स्वीकार भाव, सहजता और साहस ही माध्यम है।
सफ़र कठिन है तुम इतना भी कर सको तो चलो,
हयातो-मौत की हद से गुजर सको तो चलो।
खयालो-ख्वाब, तसव्बुर सभी हैं, जुर्म वहां,
कि खुद की जहन से अपने उतर सको तो चलो।
हयातो-मौत की हद से गुजर सको तो चलो।
खयालो-ख्वाब, तसव्बुर सभी हैं, जुर्म वहां,
कि खुद की जहन से अपने उतर सको तो चलो।
नक्श’ इलाहाबादी
तंत्र अतिक्रमण का विज्ञान है।
मनु्ष्य की चित्त संघर्ष की भाषा आसानी से समझ पाता है और संघर्ष अहंकार को तुष्टि प्रदान करता है। इसीलिये योग में आकर्षण है। योग चित्त वृत्तियों का निरोध है।
तंत्र समग्र को स्वीकार करते हुए गहरी संवेदना, सजगता, प्रेम और बोध के साथ चित्तवृत्तियों का अतिक्रमण करके उसी लक्ष्य की ओर बढ़ता है जिधर योग दमन करके बढ़ता है।
योग निषेध है। तंत्र विधेय है।
योग द्वैत की भाषा में सोचता है।
तंत्र अद्वैत और अभेद की बात कहता है।
विज्ञान भैरव तंत्र में शिव और देवी के मध्य संवाद है यहां संबंध गुरु शिष्य का नहीं, बल्कि प्रेमियों के बीच का है। शिष्य का संबंध जब तक गुरु के प्रति अगाध प्रेम का न बने, शिष्य चूकता ही जायेगा। शिष्य के लिये स्त्रैण ग्राहकता जरूरी है।
विज्ञान भैरव तंत्र बौद्धिक या दार्शनिक न होकर विज्ञान है।
सत्य क्या है ? इसकी फिक्र न कर, सत्य को कैसे उपलब्ध हों इसकी फ्रिक है। तंत्र का अर्थ है खालिस विधि The technique.
मनु्ष्य की चित्त संघर्ष की भाषा आसानी से समझ पाता है और संघर्ष अहंकार को तुष्टि प्रदान करता है। इसीलिये योग में आकर्षण है। योग चित्त वृत्तियों का निरोध है।
तंत्र समग्र को स्वीकार करते हुए गहरी संवेदना, सजगता, प्रेम और बोध के साथ चित्तवृत्तियों का अतिक्रमण करके उसी लक्ष्य की ओर बढ़ता है जिधर योग दमन करके बढ़ता है।
योग निषेध है। तंत्र विधेय है।
योग द्वैत की भाषा में सोचता है।
तंत्र अद्वैत और अभेद की बात कहता है।
विज्ञान भैरव तंत्र में शिव और देवी के मध्य संवाद है यहां संबंध गुरु शिष्य का नहीं, बल्कि प्रेमियों के बीच का है। शिष्य का संबंध जब तक गुरु के प्रति अगाध प्रेम का न बने, शिष्य चूकता ही जायेगा। शिष्य के लिये स्त्रैण ग्राहकता जरूरी है।
विज्ञान भैरव तंत्र बौद्धिक या दार्शनिक न होकर विज्ञान है।
सत्य क्या है ? इसकी फिक्र न कर, सत्य को कैसे उपलब्ध हों इसकी फ्रिक है। तंत्र का अर्थ है खालिस विधि The technique.
तंत्र का संक्षिप्त इतिहास
तंत्र का संक्षिप्त इतिहास में लेखक ने बहुत सरल शब्दों में तंत्र के विषय में प्रचलित उन जन धारणाओं पर प्रहार करने की चेष्टा की है जिनके चलते तंत्र को समाज विरोधी मान लिया गया और लाखों तांत्रिकों की हत्या करके उनके उपासना स्थलों को नष्ट कर दिया गया।
लेखक का ये प्रयास वंदनीय है, क्योंकि तंत्र के संबंध में काफी भ्रामक प्रचार उसके मूल रूप को न समझने और उसके उद्भव इतिहास को न जानने के कारण है।
तंत्र के संक्षिप्त इतिहास के प्रकरण में लेखक तंत्र के उद्भव तक जानने की कोशिश करते हुए प्रारंभिक तीन परम्पराओं का उल्लेख करता है।
(1) वैदिक, (2) तापस और (3) भौतिकतावादी
इन प्रारंभिक तीन परम्पराओं का संक्षिप्त विवरण देते हुए लेखक ब्राह्मण तंत्र उसकी शाखाओं, वैष्णव शैव और शाक्त तंत्रों के विषय में पाठकों का ज्ञानवर्धन करता है। दक्षिणाचार और वामाचार पर प्रकाश डालते हुए लेखक बौद्धतंत्र बाउल साधना सभी पर उल्लेखनीय सामग्री प्रस्तुत करते हुए पाठकों के समक्ष तंत्र का एक वास्तिवक चित्र प्रस्तुत कर पाता है।
आगे के अध्याय में ‘वामाचार’, ‘पंचमकार’ आदि का उल्लेख करते हुए लेखक बहुत खूबी से तंत्र-विज्ञान के वास्तविक आशय को संप्रेषित कर सकने में सफल है।
लेखक का ये प्रयास वंदनीय है, क्योंकि तंत्र के संबंध में काफी भ्रामक प्रचार उसके मूल रूप को न समझने और उसके उद्भव इतिहास को न जानने के कारण है।
तंत्र के संक्षिप्त इतिहास के प्रकरण में लेखक तंत्र के उद्भव तक जानने की कोशिश करते हुए प्रारंभिक तीन परम्पराओं का उल्लेख करता है।
(1) वैदिक, (2) तापस और (3) भौतिकतावादी
इन प्रारंभिक तीन परम्पराओं का संक्षिप्त विवरण देते हुए लेखक ब्राह्मण तंत्र उसकी शाखाओं, वैष्णव शैव और शाक्त तंत्रों के विषय में पाठकों का ज्ञानवर्धन करता है। दक्षिणाचार और वामाचार पर प्रकाश डालते हुए लेखक बौद्धतंत्र बाउल साधना सभी पर उल्लेखनीय सामग्री प्रस्तुत करते हुए पाठकों के समक्ष तंत्र का एक वास्तिवक चित्र प्रस्तुत कर पाता है।
आगे के अध्याय में ‘वामाचार’, ‘पंचमकार’ आदि का उल्लेख करते हुए लेखक बहुत खूबी से तंत्र-विज्ञान के वास्तविक आशय को संप्रेषित कर सकने में सफल है।
तंत्र के प्रयोग और ओशो की मौलिक दृष्टि
तंत्र के रहस्यमय विज्ञान पर ओशो की अनूठी दृष्टि और उनके द्वारा व्यावहारिक स्तर पर ओशो कम्यून, पूना में संचालित प्रयोगों पर लेखक ने विहंगम दृष्टिपात किया है। ये काम जनता में व्याप्त तमाम भ्रामक धारणाओं का निवारण कर सके तो इसे लेखक की उपलब्धि ही माना जायेगा।
संवेदनशीलता, स्वीकारभाव और सजगता तंत्र प्रयोगों के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटक है। स्वामी ज्ञानभेद ने ‘‘संवेदनशीलता विकसित करने के कुछ प्रयोग’’ दिये हैं जो सरल और प्रभावशाली हैं।
‘कुंडलिनी और समाधि’ पुस्तक में स्वामी ज्ञानभेद द्वारा ‘शब्द ब्रह्म द्वारा समाधि’ शीर्षक अध्याय के अंतर्गत शब्द और ध्वनि की विस्तार से व्याख्या करते हुए श्री जयदेव सिंह और श्री ब्रजबल्लभ की विज्ञान भैरव तंत्र टीका के आधार पर भी संस्कृत वर्ममाला के बारह मूल स्तरों से निकलने वाली ध्वनि और शरीर के बारह चक्रों पर उसके प्रभाव का विस्तृत उल्लेख किया है। यह पूरा अध्याय लेखक के गहन परिश्रम और लगन से ही फलीभूत हो सकता था। यह पूरा अध्याय पुस्तक की उपादेयता को हजार गुणा बढ़ाने में सक्षम है।
लेखक अपनी व्याख्या में कहता है-‘‘अक्षरों को ब्रह्म कहा गया है। सभ्यता का विकास ही भाषा से हुआ है। भाषा शब्दों का समूह है। शब्द ध्वनि है। विचार एक विशेष क्रम और ढांचे से बंधे शब्द हैं। ध्वनि से शब्द बनते हैं और शब्दों से विचार।’’
ध्वनियों के प्रभाव को और अधिक स्पष्ट करते हुए लेखक कहता है-‘‘प्रपात के गिरने, नदी की कलकल, पक्षियों की चहचहाने और बांस वन में टकराती हवा से उत्पन्न ध्वनियां मौन रह कर गहरे ध्यान में जाने में सहयोगी हैं।’’
ध्वनि का यही विज्ञान ही तो मंत्रों का जन्मदाता है। मंत्रों के शब्द विन्यास का उचित उच्चारण एक विशिष्ट ध्वनि निर्मित करके एक विशेष वातावरण और भाव का सृजन कर सकता है।
विज्ञान-भौरव-तंत्र की टीकाओं के आधार पर लेखक ने वर्णमाला के सभी अक्षरों और उनका किस तत्व से संबंध है इसका उल्लेख किया है। आगम शैव तंत्र श्री श्री परात्रिशिंका पुस्तक से संकलित सभी व्यजंनों का पूर्ण विवरण इस पुस्तक में संजोकर लेखक ने इस अत्यंत गुप्त विद्या को प्रबुद्ध पाठकों तक पहुंचाने का भागिरथी प्रयास किया है।
संवेदनशीलता, स्वीकारभाव और सजगता तंत्र प्रयोगों के लिये बहुत ही महत्त्वपूर्ण घटक है। स्वामी ज्ञानभेद ने ‘‘संवेदनशीलता विकसित करने के कुछ प्रयोग’’ दिये हैं जो सरल और प्रभावशाली हैं।
‘कुंडलिनी और समाधि’ पुस्तक में स्वामी ज्ञानभेद द्वारा ‘शब्द ब्रह्म द्वारा समाधि’ शीर्षक अध्याय के अंतर्गत शब्द और ध्वनि की विस्तार से व्याख्या करते हुए श्री जयदेव सिंह और श्री ब्रजबल्लभ की विज्ञान भैरव तंत्र टीका के आधार पर भी संस्कृत वर्ममाला के बारह मूल स्तरों से निकलने वाली ध्वनि और शरीर के बारह चक्रों पर उसके प्रभाव का विस्तृत उल्लेख किया है। यह पूरा अध्याय लेखक के गहन परिश्रम और लगन से ही फलीभूत हो सकता था। यह पूरा अध्याय पुस्तक की उपादेयता को हजार गुणा बढ़ाने में सक्षम है।
लेखक अपनी व्याख्या में कहता है-‘‘अक्षरों को ब्रह्म कहा गया है। सभ्यता का विकास ही भाषा से हुआ है। भाषा शब्दों का समूह है। शब्द ध्वनि है। विचार एक विशेष क्रम और ढांचे से बंधे शब्द हैं। ध्वनि से शब्द बनते हैं और शब्दों से विचार।’’
ध्वनियों के प्रभाव को और अधिक स्पष्ट करते हुए लेखक कहता है-‘‘प्रपात के गिरने, नदी की कलकल, पक्षियों की चहचहाने और बांस वन में टकराती हवा से उत्पन्न ध्वनियां मौन रह कर गहरे ध्यान में जाने में सहयोगी हैं।’’
ध्वनि का यही विज्ञान ही तो मंत्रों का जन्मदाता है। मंत्रों के शब्द विन्यास का उचित उच्चारण एक विशिष्ट ध्वनि निर्मित करके एक विशेष वातावरण और भाव का सृजन कर सकता है।
विज्ञान-भौरव-तंत्र की टीकाओं के आधार पर लेखक ने वर्णमाला के सभी अक्षरों और उनका किस तत्व से संबंध है इसका उल्लेख किया है। आगम शैव तंत्र श्री श्री परात्रिशिंका पुस्तक से संकलित सभी व्यजंनों का पूर्ण विवरण इस पुस्तक में संजोकर लेखक ने इस अत्यंत गुप्त विद्या को प्रबुद्ध पाठकों तक पहुंचाने का भागिरथी प्रयास किया है।
कुंडलिनी शक्ति
सात चक्र
सात शरीर
और उनकी सम्भावनायें-
‘कुंडलिनी और समाधि’ पुस्तक के आखिर में कुछ शीर्षक-कुंडलिनी-शक्ति और शरीर के सात चक्रों से संबंधित है। आध्यात्मिक साधना के संदर्भ में आज कुंडलिनी जागरण आदि शब्द बहुत प्रचलित हो रहे हैं। सूक्ष्म शरीर में स्थित सात चक्रों को अब किसी न किसी रूप में वैज्ञानिक आधार मिल रहा है। मेरुदंड (रीढ़ की हड्डी) जो कुछ समय पहले तक भौतिक शरीर का आलम्बन मात्र समझी जा रही थी, अब उसके सूक्ष्म यात्रा पथ पर संज्ञान विज्ञान भी ले रहा है। पूर्व के मनीषियों ने हजारों वर्ष पहले ही सात शरीरों, सात चक्रों और ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन आदि के विषय में कहा-सुना और इसकी तुलना सर्प गति से करते हुए समझाने की कोशिश की है।
कुछ लोग चार चक्रों की, कुछ सात चक्रों की और कुछ लोग नौ चक्रों की बात करते हैं। यह अपने-अपने व्यक्तिगत अनुभव पर आधिरत है। सार की बात तो यह है कि स्थूल शरीर के समानान्तर सूक्ष्म शरीर और उसके चक्र की बातें तब तक सिर्फ बाते ही हैं जब तक आत्म-अनुभव न बनें। साधनायें चाहें तंत्र की हों या योग की सारी साधना कामऊर्जा की मूलाधार से सहस्त्रसार तक की यात्रा की ही आयोजन है। सभी साधनाएं अंततः ‘कुंडलिनी और समाधि’ का ही उपक्रम हैं।
सात शरीर, सात चक्र उनका भेदन और कुंडलिनी शक्ति के उर्ध्वगमन प्रयोग और अनुभव का विषय हैं, दर्शन का नहीं, लेकिन आज का मनुष्य इतना बुद्धि केन्द्रित है, इतना तार्किक है कि बौद्धिक खुजलाहट का निस्तारण हुये बगैर प्रयोग में उतरने को कोई क्यों राजी होगा ? कुंडलिनी शक्ति एक अवधारणा नहीं वरन् एक वैज्ञानिक सत्य है। किसी भी वैज्ञानिक अवधारणा को जांचने-परखने का उपाय प्रयोग से गुजरना है, तभी वो सत्यापित होता है।
प्रस्तुत पुस्तक में स्वामी ज्ञानभेद ने यथासंभव बुद्धि के तल पर साधक को जितना कुछ दिया जा सकता है, देने का प्रयास किया है। इसके लिये उन्होंने रेखाचित्र और चार्ट आदि का सहारा भी लेने से गुरेज नहीं किया है। निश्चित ही इस तरह के साधन, विषय को बोधगम्य तो बनाते ही हैं।
इन अभ्यासों में लेखक ने ‘प्राणवायु’, नाड़ियां, जाप का महत्व, श्वांस की प्रक्रिया और व्यक्तित्व परिवर्तन मनोगत समाधि की झलक और त्रिनेत्र साधना जैसे अनेका-अनेक आयामों को कुंडलिनी-जागरण के साथ जोड़ते हुए ‘कुंडलिनी और समाधि’ की संभावनाओं को पाठक के हृदय तक पहुंचाने का बहुत सार्थक प्रयास किया है।
अगर इस पुस्तक को पढ़ने के पश्चात् आम आदमी के भ्रमों का विसर्जन हो पाता है और साधक के अंदर गहन प्रयोगों में उतर कर आत्मअनुभव की अभीप्सा पैदा हो पाती है तो लेखक का यह ईमानदार प्रयास सार्थक हो सकेगा, और मैं हृदय से कामना करता हूं कि ऐसा ही हो। इसी शुभकामना के साथ और ‘कुंडलिनी और समाधि’ कृति के लिए लेखक को बधाई देते हुए, मैं प्रबुद्ध पाठकों को इस पठन-पाठन के लिए आमंत्रित करते हुए अपार हर्ष अनुभव कर रहा हूं।
सात शरीर
और उनकी सम्भावनायें-
‘कुंडलिनी और समाधि’ पुस्तक के आखिर में कुछ शीर्षक-कुंडलिनी-शक्ति और शरीर के सात चक्रों से संबंधित है। आध्यात्मिक साधना के संदर्भ में आज कुंडलिनी जागरण आदि शब्द बहुत प्रचलित हो रहे हैं। सूक्ष्म शरीर में स्थित सात चक्रों को अब किसी न किसी रूप में वैज्ञानिक आधार मिल रहा है। मेरुदंड (रीढ़ की हड्डी) जो कुछ समय पहले तक भौतिक शरीर का आलम्बन मात्र समझी जा रही थी, अब उसके सूक्ष्म यात्रा पथ पर संज्ञान विज्ञान भी ले रहा है। पूर्व के मनीषियों ने हजारों वर्ष पहले ही सात शरीरों, सात चक्रों और ऊर्जा के ऊर्ध्वगमन आदि के विषय में कहा-सुना और इसकी तुलना सर्प गति से करते हुए समझाने की कोशिश की है।
कुछ लोग चार चक्रों की, कुछ सात चक्रों की और कुछ लोग नौ चक्रों की बात करते हैं। यह अपने-अपने व्यक्तिगत अनुभव पर आधिरत है। सार की बात तो यह है कि स्थूल शरीर के समानान्तर सूक्ष्म शरीर और उसके चक्र की बातें तब तक सिर्फ बाते ही हैं जब तक आत्म-अनुभव न बनें। साधनायें चाहें तंत्र की हों या योग की सारी साधना कामऊर्जा की मूलाधार से सहस्त्रसार तक की यात्रा की ही आयोजन है। सभी साधनाएं अंततः ‘कुंडलिनी और समाधि’ का ही उपक्रम हैं।
सात शरीर, सात चक्र उनका भेदन और कुंडलिनी शक्ति के उर्ध्वगमन प्रयोग और अनुभव का विषय हैं, दर्शन का नहीं, लेकिन आज का मनुष्य इतना बुद्धि केन्द्रित है, इतना तार्किक है कि बौद्धिक खुजलाहट का निस्तारण हुये बगैर प्रयोग में उतरने को कोई क्यों राजी होगा ? कुंडलिनी शक्ति एक अवधारणा नहीं वरन् एक वैज्ञानिक सत्य है। किसी भी वैज्ञानिक अवधारणा को जांचने-परखने का उपाय प्रयोग से गुजरना है, तभी वो सत्यापित होता है।
प्रस्तुत पुस्तक में स्वामी ज्ञानभेद ने यथासंभव बुद्धि के तल पर साधक को जितना कुछ दिया जा सकता है, देने का प्रयास किया है। इसके लिये उन्होंने रेखाचित्र और चार्ट आदि का सहारा भी लेने से गुरेज नहीं किया है। निश्चित ही इस तरह के साधन, विषय को बोधगम्य तो बनाते ही हैं।
इन अभ्यासों में लेखक ने ‘प्राणवायु’, नाड़ियां, जाप का महत्व, श्वांस की प्रक्रिया और व्यक्तित्व परिवर्तन मनोगत समाधि की झलक और त्रिनेत्र साधना जैसे अनेका-अनेक आयामों को कुंडलिनी-जागरण के साथ जोड़ते हुए ‘कुंडलिनी और समाधि’ की संभावनाओं को पाठक के हृदय तक पहुंचाने का बहुत सार्थक प्रयास किया है।
अगर इस पुस्तक को पढ़ने के पश्चात् आम आदमी के भ्रमों का विसर्जन हो पाता है और साधक के अंदर गहन प्रयोगों में उतर कर आत्मअनुभव की अभीप्सा पैदा हो पाती है तो लेखक का यह ईमानदार प्रयास सार्थक हो सकेगा, और मैं हृदय से कामना करता हूं कि ऐसा ही हो। इसी शुभकामना के साथ और ‘कुंडलिनी और समाधि’ कृति के लिए लेखक को बधाई देते हुए, मैं प्रबुद्ध पाठकों को इस पठन-पाठन के लिए आमंत्रित करते हुए अपार हर्ष अनुभव कर रहा हूं।
258-जे, आदर्श नगर
(जे.के.कालोनी)
कानपुर-208010
दूरभाष-2460028
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प्रेम निशीथ
अपनी बात
शून्य में जब छलांग लग जाती है तो शब्दों का संसार बचता ही नहीं। पर जब तक यह छलांग न लगे, शब्द अर्थपूर्ण है। कैसे शून्यता की झलकें मिलें, कैसे उस विराट मौन शून्य में चेतना समाहित हो जाये, इस संबंध में अपने अनुभव को शब्दों द्वारा अभिव्यक्ति करते हुए उसके सार्थक संकेत दिए जा सकते हैं।
संसार के मध्य रहते हुए किसी के लिए भी चौबीस घंटे शून्य समाधि में बने रहना संभव नहीं। शरीर को बनाए रखने के लिए आवश्यक कर्मों के लिए संसार में लौटना ही होता है। जो मिला है, उसे दूसरे प्यासों में बांटने का भाव भी करुणा से उद्भूत होता है।
ओशो कहते हैं-यह ठीक ऐसा ही है जैसे बाहर की धूप और गर्मी से जी अकुलाने लगे तो अपने अदंर शीतल शांत मौन शून्य की सहज समाधि में उतर जाओ और जब अंदर शीत से कंपकंपी छूटने लगे और धूप की उष्णता का आनंद लेना चाहो तो फिर बाहर संसार की धूप में या परिधि पर आ जाओ।
मुझे शून्यता की अनूठी झलकें और स्वाद मिला है यह कहने में मुझे कोई झिझक नहीं, पर शून्यता के पार भी परम शून्यता का रहस्यमय लोक है, जिसका अनुभव गूंगे का गुण है। परम शून्यता को शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता। सारे अनुभव मन और इन्द्रियों के हैं। इन सभी अनुभवों का द्रष्टा या निरीक्षणकर्ता भी नहीं बचता। मंजिल कभी आती ही नहीं। चरै : वेति चरै : वेति। बढ़ते ही चलो, आगे और निरन्तर आगे...।
नये साधकों अथवा उन साधकों और प्रेमियों को जिन्हें वर्षों ध्यान करते हुए भी घटा नहीं अथवा जिनका रुपान्तरण नहीं हुआ, मेरे ठोकरें खा-खा कर विकसित होने के अनुभव उनके लिए सहायक हो सकें, इसलिए यह ग्रंथ लिखने का भाव ओशो अनुकम्पा से हृदय में जागृत हुआ। ओशो के अंर्तयात्रा में सहायक तथा विकसित होने का सूत्र उनकी 750 हिन्दी अंग्रेजी प्रवचनमालाओं में जहां-तहां बिखरे हुए हैं।
उनकी आत्मकथा ‘एक फक्कड़ मसीहा-ओशो’ लिखने के पूर्व और लेखन के अंतरालों में मुझे उनके अधिकतर प्रवचनों को टेप पर सुनने या पढ़ने का सौभाग्य मिला। प्रवचनों के मध्य साधना में विकसित होने वाले छोटे-छोटे उपायों को मैं पढ़ना या सुनना बंद कर उन्हें करने में लग जाता था। गल्तियां होती थी। ठोंकरे भी लगती थीं। पर ओशो तथा अस्तित्व की अनुकम्पा से प्रकृति सान्निध्य में एक लम्बी अवधि रहने के दौरान अकेलेपन और मौन में रस आने लगा। सद्गुरु की करुणा और प्रसाद से शून्यता की झलकें मिलनी शुरू हो गईं। दो-तीन वर्ष बात करते गुजर गये। तभी अचानक एक दिन उन अनुभवों को लिपिबद्ध करने की अज्ञात प्रेरणा से लेखनी स्वतः गतिशील हो उठी।
संसार के मध्य रहते हुए किसी के लिए भी चौबीस घंटे शून्य समाधि में बने रहना संभव नहीं। शरीर को बनाए रखने के लिए आवश्यक कर्मों के लिए संसार में लौटना ही होता है। जो मिला है, उसे दूसरे प्यासों में बांटने का भाव भी करुणा से उद्भूत होता है।
ओशो कहते हैं-यह ठीक ऐसा ही है जैसे बाहर की धूप और गर्मी से जी अकुलाने लगे तो अपने अदंर शीतल शांत मौन शून्य की सहज समाधि में उतर जाओ और जब अंदर शीत से कंपकंपी छूटने लगे और धूप की उष्णता का आनंद लेना चाहो तो फिर बाहर संसार की धूप में या परिधि पर आ जाओ।
मुझे शून्यता की अनूठी झलकें और स्वाद मिला है यह कहने में मुझे कोई झिझक नहीं, पर शून्यता के पार भी परम शून्यता का रहस्यमय लोक है, जिसका अनुभव गूंगे का गुण है। परम शून्यता को शब्दों द्वारा अभिव्यक्त किया ही नहीं जा सकता। सारे अनुभव मन और इन्द्रियों के हैं। इन सभी अनुभवों का द्रष्टा या निरीक्षणकर्ता भी नहीं बचता। मंजिल कभी आती ही नहीं। चरै : वेति चरै : वेति। बढ़ते ही चलो, आगे और निरन्तर आगे...।
नये साधकों अथवा उन साधकों और प्रेमियों को जिन्हें वर्षों ध्यान करते हुए भी घटा नहीं अथवा जिनका रुपान्तरण नहीं हुआ, मेरे ठोकरें खा-खा कर विकसित होने के अनुभव उनके लिए सहायक हो सकें, इसलिए यह ग्रंथ लिखने का भाव ओशो अनुकम्पा से हृदय में जागृत हुआ। ओशो के अंर्तयात्रा में सहायक तथा विकसित होने का सूत्र उनकी 750 हिन्दी अंग्रेजी प्रवचनमालाओं में जहां-तहां बिखरे हुए हैं।
उनकी आत्मकथा ‘एक फक्कड़ मसीहा-ओशो’ लिखने के पूर्व और लेखन के अंतरालों में मुझे उनके अधिकतर प्रवचनों को टेप पर सुनने या पढ़ने का सौभाग्य मिला। प्रवचनों के मध्य साधना में विकसित होने वाले छोटे-छोटे उपायों को मैं पढ़ना या सुनना बंद कर उन्हें करने में लग जाता था। गल्तियां होती थी। ठोंकरे भी लगती थीं। पर ओशो तथा अस्तित्व की अनुकम्पा से प्रकृति सान्निध्य में एक लम्बी अवधि रहने के दौरान अकेलेपन और मौन में रस आने लगा। सद्गुरु की करुणा और प्रसाद से शून्यता की झलकें मिलनी शुरू हो गईं। दो-तीन वर्ष बात करते गुजर गये। तभी अचानक एक दिन उन अनुभवों को लिपिबद्ध करने की अज्ञात प्रेरणा से लेखनी स्वतः गतिशील हो उठी।
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